यह सुनकर श्री रघुवीर हंसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो. ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए. विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है, तथापि नीति ऐसी कही गई है कि पहले जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए. हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे. तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी. श्री रामजी ने कहा- हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया. यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों. यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी. श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया. लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए. यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है. आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं. उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया. फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए. इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे. कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएं देखीं. वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे.
फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया. सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बांधकर सुग्रीव के पास ले आए. सुग्रीव ने कहा- सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो. सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े. दूतों को बांधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया. वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे. वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा.
तब दूतों ने पुकारकर कहा- जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है. यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया. उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हंसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया. और उनसे कहा- रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना और कहना- हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों को बांचो. फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) संदेश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो). लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए. श्री रामजी का यश कहते हुए वे लंका में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए.
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